Sunday, June 7, 2020

hinglaj mata yatra varnan

[10:23, 6/5/2020] C M Katariya Principal Sikar: आपको हिंगलाज यात्रा का एक रोमांचक वृतांत सीरियल में भेज रहा हूं।
पहली किश्त भेजी जा रही है👇
[10:24, 6/5/2020] C M Katariya Principal Sikar: जय हिंगलाज
-देवदत्त शास्त्री
दक्ष यज्ञ में अपने ही पिता दक्ष प्रजापति के हाथों अपने पति शिव के अपमान से मर्माहत होकर सती ने यज्ञ कुंड में कूदकर आत्महत्या कर ली। शिव के गणों ने दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर दिया और वीरभद्र ने दक्ष का वध कर डाला। शिव मोहांध होकर सती का शव कंधे पर लादकर विक्षिप्त अवस्था में इधर-उधर घूमते रहे। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के शव के 52 टुकड़े कर दिए।यह अंग जहां-जहां गिरे वहां वहां एक-एक शक्तिपीठ बन गया। सती का ब्रह्मरंध्र हिंगुलाज में गिरा। इसलिए हिंगुलाज या हिंगलाज को शक्तिपीठों में प्रथम और प्रधान माना गया है।
वर्तमान पाकिस्तान के बलूचिस्तान में 25.30°उत्तर अक्षांश तथा 65.31° देशांतर पूर्व में सिंधु नदी के मुहाने से 80 मील पश्चिम तथा अरब सागर से 12 मील उत्तर में जहां गिरिमाला मकरान और लूस को अलग करती है;वहां पहाड़ की एक अंधेरी गुफा में महामाया हिंगलाज देवी का मंदिर है। इस देवी को कोट्टरी या कोट्टरीशा भी कहा गया है ,शायद गुफा में स्थित होने के कारण। प्रत्येक शक्ति पीठ में एक-एक भैरव भी अवस्थित होता है हिंगलाज में भीम लोचन भैरव है।
      बलूचिस्तान का अथर रेगिस्तान जिसमें हिंगलाज तीर्थ स्थित है, साक्षात् आग का दरिया है। पूर्व में कोहिस्तान, पश्चिम में कलात की पहाड़ियां और दक्षिण में अरब सागर।इनके बीच यह रेगिस्तान प्रणामी मुद्रा में लेटा हुआ है। दक्षिण में इसके चरण हाथ नदी को छूते हैं। फैली हुई दो भुजाएं दक्षिण की ओर अरब सागर का और उत्तर की ओर हेकाफ पर्वतमाला का स्पर्श करती हैं। पश्चिम में भक्ति से अवनत सिर हिंगलाज देवी के चरणों को पखारती हुई अघोर नदी से अभिषिक्त है।
अघोर नदी जो हिंगलाज से 12 मील दक्षिण में अरब सागर में मिलती है उत्तर से बहकर इस शक्ति पीठ पर पहुंचने तक हिंगुल कहलाती है। शायद इस तीर्थ का हिंगुलाज या हिंगलाज नाम इसी कारण पड़ा हो। 'चूड़ामणितंत्र','बृहन्नीलतंत्र' तथा एक अन्य तंत्रग्रंथ 'शिवचरित'में इसे हिंगुला कहा गया है। इस नाम की एक व्याख्या और है।'हिंगुलै' संस्कृत भाषा का शब्द है और उस अशुद्ध खनिज का वाचक है जिससे पारा(पारद)निकाला जाता है। पौराणिक, तांत्रिक और आयुर्वेदीय मान्यता के अनुसार पारद शिव का वीर्य है और गंधक पार्वती का रज है। इन दोनों का मिलन होता है, वे मिलकर रक्त वर्ण हो जाते हैं।
  ब्रिटिश शासन काल में बलूचिस्तान तीन हिस्सों में बंटा हुआ था। एक ब्रिटिश बलूचिस्तान कहलाता था,उसमें अंग्रेजी शासन था दूसरा भाग लासबेला और कलात रियासतों के अधीन था, तीसरा भाग ईरान के अंतर्गत था।प्रथम दो भाग अब पाकिस्तान के अंतर्गत हैं।
जब पाकिस्तान नहीं बना था और भारत की पश्चिमी सीमा अफगानिस्तान और ईरान से छूती थी, उस समय हिंगलाज हिंदुओं का सबसे पश्चिमवर्ती तीर्थ तो था ही बलूचिस्तान  के मुसलमान भी उसकी यात्रा करते थे। हिंगला देवी को वे नानी कहते थे और लाल कपड़ा,अगरबत्ती, इत्र-फुलेल और शीरनी चढ़ाकर उसकी पूजा करते थे।इस यात्रा को 'नानी की हज ' कहते थे। इस तरह हिंगलाज उस समय में हिंदुओं मुसलमानों का सम्मिलित तीर्थ था।
        उन दिनों कराची से ऊंट चंद्रकूप होकर 25 दिन में हिंगलाज पहुंचता था और वापसी में चंद्रकूप न जाने से 5 दिन की बचत हो जाती थी, सो 20 दिन में कराची लौट आता था। इस तरह कराची से हिंगलाज आने जाने में 45 दिन लगते थे। कोई कोई एक महीने में भी यात्रा पूरी कर लेते थे। यहां पर यह भी कह दूं कि रेगिस्तान की यात्रा में मील और कोस की गणित कुछ काम नहीं देती। रेगिस्तान के जहाज ऊंट रेगिस्तान में मील का पत्थर होते हैं।वे किसी स्थान पर जितने दिनों में पहुंचा दें, उस स्थान की दूरी उतने दिन की समझ लीजिए।
      ‌ केवल दो तरह के यात्री हिंगलाज जाते थे एक तो फक्कड़ अवधूत और योगी विरागी,दूसरे संतान का मुंह देखने के प्रार्थी नि:संतान दंपत्ति और स्त्री हत्या भ्रूण हत्या के पाप से छुटकारा पाने के इच्छुक प्रायश्चितार्थी।इन दोनों कोटियों में से किसी भी कोटि में न आने वाला मैं हिंगलाज का दर्शन करने के लिए निकला यह भी एक दैवीय संयोग था।
                      ० ००
       जून 1940 में मैं कश्मीर से लौट रहा था कि लाहौर में मुझे नाथ संप्रदाय के एक योगी मिले।
[10:24, 6/5/2020] C M Katariya Principal Sikar: क्रमश:
[10:24, 6/5/2020] C M Katariya Principal Sikar: क्रमश:
[15:24, 6/5/2020] C M Katariya Principal Sikar: जय हिंगलाज दो -क्रमशः
बातचीत के दरमियान उन्होंने  हिंगलाज देवी का जिक्र छेड़ा और एक घंटे तक महिमा और यात्रा की कठिनाइयां बतलाते रहे और अनेक रहस्यभरी घटनाओं, कुतूहलवर्धक चमत्कारों का आंखों देखा हाल सुनाया। उन रहस्यों और चमत्कारों ने मुझे उतना आकृष्ट नहीं किया जितना कि दुर्गम पथ की विभीषिका का। योगी से रास्ते और यात्रा -साधनों का परिचय प्राप्त करके मैं हिंगलाज यात्रा का  संकल्प लेकर लाहौर से कराची पहुंच गया।योगी के बताए नागनाथ के अखाड़े में मैंने अपना सफरी सामान रखकर कंबल बिछा दिया। पता चला कि सात यात्री एक सप्ताह से ठहरे हुए हैं। बीस पचीस यात्री इकट्ठे हो जाएं तभी यात्रा प्रारंभ होगी। यात्रा दल का पुरोधा छड़ीदार भी आ गया था, उसने बताया कि ऊंट वालों को संदेश भेज दिया गया है। पंद्रह  बीस दिन के अंदर वे आ जाएंगे तब तक और यात्री भी एकत्र हो जाएंगे।
          ये ऊंटवाले हिंगलाज के समीप के निवासी होते थे। छड़ीदार हिंगलाज की यात्रा और देवी दर्शन कराने वाला तीर्थ पुरोहित अथवा पंडा होता था। नागनाथ अखाड़े के आसपास बसे हुए कुछ परिवारों को यह एकाधिकार परंपरा से प्राप्त था। प्रतिवर्ष एक परिवार की पारी होती,उसका एक सदस्य छड़ी लेकर यात्रियों के साथ जाता। वही यात्रा में दल की अगुवाई करता और यात्रियों के योग क्षेम का उत्तरदाई होता।
      आठ-दस दिन रुकने के बाद मेरा जी ऊबने लगा। अखाड़े के महंत ने कहा कि ऊंटवालों के आने में एक महीने से कम समय नहीं लगेगा, हां, तब तक सक्खर  जाकर साधु बेला तीर्थ के दर्शन कर लो; वैसी भव्यता और पवित्रता बहुत कम स्थानों में देखने को मिलती है। उनकी सलाह मानकर मैं साधु बेला चला गया।
‌        साधु बेला तीर्थ अद्वितीय धर्मस्थल था-जागृत तपोभूमि, उसका सौंदर्य अनिंद्य था। जल में थल और थल में जल। चहुंओर आध्यात्मिक स्पंदन सत्व गुण का राज्य। उस समय साधु बेला के मुख्य अधिष्ठाता महंत श्री स्वामी हरनाम दास जी महाराज थे। अवढरदानी, शांत धीर और गंभीर, तपोनिष्ठ महात्मा। मुझ अकिंचन घुमक्कड़, पर उन्होंने अपने सहज  स्नेह की वृष्टि की, जो वृष्टि की उससे मैं अभिभूत हो गया। उन्होंने दो अत्यंत उपयोगी ग्रंथ लिख कर साधु बेला से ही प्रकाशित करवाए थे-एक हिंदू धर्म पर था दूसरा हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों के पुरुषार्थ पर। दोनों ग्रंथ कृपा पूर्वक मुझे देते हुए महंत जी बोले- 'बेटा,इन्हें लिखने में मेरी आंखों में मोतियाबिंद उतर आया है।'निसंदेह दोनों ग्रंथ अत्यंत परिश्रम और खोज से लिखे गए थे। महंत जी के पटृ शिष्य और उत्तराधिकारी श्रीगणेश दास जी थे, जो उस समय दस बारह वर्ष के रहे होंगे, किंतु तेजस्वी, धार्मिक, धीर, गंभीर भूऔर आकर्षक। उनके विद्याध्ययन और साधना का समय था।
‌ छब्बीस दिन साधुबेला तीर्थ में रहकर मैंने महंत जी से कराची लौटने और वहां से हिंगलाज जाने की अनुमति मांगी, तो उन्होंने हिंगलाज की कष्टकर यात्रा का खाका खींचते हुए मुझसे कहा-'तुम्हारे साथ दो महीने की खाद्य सामग्री यात्रा में रहनी चाहिए।'मैंने निवेदन किया-'मेरे पास अल्प सा द्रव्य है। उससे मैं चना और गुड़ खरीद लूंगा और जो भी पैसा बचेगा छड़ीदार के हवाले कर दूंगा। महंत जी बोले -'सेर भर भी बोझा मरुभूमि में सौ मन का बन जाता है।साथ में पानी भी ढोना पड़ता है।ऊंट कर लेना। मैंने कहा-'महाराज तब तो जो कुछ है वह यहीं साधु बेला के पवित्र सरोवर में छोड़कर और भगवती हिंगलाज का मन में ध्यान कर मैं वापस चला जाता हूं।'वह हंस पड़े, कुछ बोले नहीं।
‌     भोजन के पश्चात जब मैं प्रस्थान पूर्व प्रणाम करने गया तो महंत जी एक साधु की ओर इशारा करते हुए बोले-'यह महात्मा कराची तक तुम्हारे साथ जा रहे हैं ।'मैंने सहज भाव से 'ठीक है महाराज' कह दिया।
‌     उन महात्मा के पास काफी सामान था। कराची में नागनाथ अखाड़े में पहुंचकर वह मुझे एक एक चीज संभलवाने लगे-'यह सूखा मेवा है दस सेर।यह आटा है एक मन। दाल है यह चावल है यह बताशे हैं।यह गुड़ है। और यह इमली की सूखी चटनी-प्यास लगने पर या मिचली आने पर या चक्कर आने पर एक गोली मुंह में डाल लिया करना।'और अंत में एक लाल थैली निकालकर मुझे थमाते हुए कहा कि इसमें एकसौ पचीस रुपए नकद हैं। मैं स्तब्ध मेरी वाणी एकदम अवरुद्ध। मुझे उसी अवस्था में छोड़कर साधुबेला के  वे महात्मा चले गये। मैं उन्हें प्रणाम भी न कर सका।
     अब कहते लज्जा आती है ।हिंगलाज से लौटने पर भी मुझे साधुबेला जाने का साहस न हुआ।कृतघ्न बनकर मैं इधर-उधर घूमता रहा। पर अंततः एक बार  प्रयाग में कुंभ पर्व के अवसर पर उन महामना महंत जी से भेंट हो गयी। वहां मैंने उनके चरण स्पर्श करके हृदय का बोझ हल्का किया ।फिर तो महीने भर उनके दर्शन का पुण्य नित्य प्राप्त होता रहा ।साधु बेला तीर्थ ,उसके महंत जी और महंतजी के उत्तराधिकारी किशोरवय तपस्वी जो अब मुंबई में साधु बेला आश्रम के महंत हैं ।सदैव मेरे स्मृति पथ पर बने रहते हैं ।उन सब को प्रणाम! ०००
         नागनाथ के अखाड़े में कुल 27 यात्री एकत्र हो गए थे। उनमें एक स्त्री पुरुष का जोड़ा भी था। पति का नाम था जीवराज करसनजी सांचोरा और पत्नी का नाम था जयाबेन। जीवराज भाई ने तीसरी शादी में जयाबेन को पाया था।जयाबेन 27 वर्ष की थी और जीवराज भाई 54 वर्ष के थे ।दस  वर्ष उनकी शादी को हो गए थे मगर जया की गोद नहीं भरी थी संतान की कामना से ही दोनों हिंगलाज दर्शन के लिए जा रहे थे।
        सत्ताईस तीर्थ यात्रियों के अलावा एक छड़ीदार दो ऊंटवाले सब मिलाकर तीस मानव प्राणी थे। ऊंटनी 'गुलबदन' और ऊंट 'तूफान'को भी मिलाकर कुल 32 जीव थे। इनमें जयाबेन और ऊंटनी गुलबदन दो स्त्रीलिंग और शेष पुलिंग थे। गुलबदन का मालिक शेर मोहम्मद साढे 6 फीट का 40 वर्षीय बांका जवान था। गुलबदन का मालिक भीमकाय‌ कासिम 60 बरस का पट्ठा था और साठी का पाठा कहावत चरितार्थ कर रहा था। दोनों के हाथ में चमचमाते हुए फरसे थे। दोनों धीर-गंभीर, मितभाषी और अतिशय विनम्र थे। शरीर की ऊंचाई के अनुरूप ही वे चरित्र में भी ऊंचे थे।
        दोनों ऊंटों पर सामान लाद दिया गया। तीसरे पहर के 4:00 बजे थे।सब लोग अपनी अपनी सुराही कंधे पर लटका कर जय माता हिंगलाज का घोष करके चल पड़े। कराची से बाहर निकलने पर खेत मिले, कुछ रेतीली बंजर ज़मीन मिली।झाड़ झाड़ियां कांटे कंकड़ मिले। बड़ा उत्साह था हम सब लोगों में। आषाढ़ का महीना था। न बादल ने बूंद, न लूड लपट।निरभ्र,निर्लिप्त आकाश।उछाह-भरा वह वर्तमान बड़ा सुखद और सुनहरा लग रहा था। भविष्य की कोई चिंता न थी। लगभग तीन-चार मील चलने के बाद कुश कंटकों से आकीर्ण पथ मिला।कांटे चुभने पर सी सी करते आगे बढ़ते,कुशा की‌ नोक गड़ने पर बल्ल से खून निकल पड़ता था। किंतु कोई परवाह नहीं। हिंगलाज की जय बोल कर आगे बढ़ जाते।
             जयाबेन को गोद भर जाने का पक्का विश्वास था। इसलिए उसका उछाह हम सब से छब्बीस दुगुने बावन था।वह तितली की तरह फुदकती, बिजली की तरह चमकती, लहरों की तरह इठलाती चल रही थी। झाड़ियां उसकी साड़ी पकड़कर रोक लेती तो वह 'उई मां' कह कर बैठ जाती और जीवराज भाई दौड़कर उसे झाड़ियों के बाहुपाश से मुक्त कराते।वह फिर फुदकती उड़ती हुई आगे बढ़ती और कांटे चुभने पर 'हाय!हाय!करके' लोटपोट हो जाती। तब कुछ क्षण के लिए सबको रुकना पड़ता था।
         सूर्यास्त होते होते हम लोग हाब नदी के किनारे पहुंच गये। यही पहला पड़ाव था उस यात्रा का और असली तीर्थ यात्रा यहीं से प्रारंभ होती थी। हाब के इस पार सिंध प्रदेश की सीमा समाप्त होती है और उस पार से बलूचिस्तान लासबेला राज्य की सीमा प्रारंभ होती है। लास बेला स्वाधीन राज्य था, उसी राज्य में देवी हिंगलाज की अवस्थिति है।
      ‌‌ ऊंटों से सामान उतार दिया गया। सबने अपनी-अपनी गठरी मठरी अलग-अलग कर ली। मेरे पास बोरों और बोरियों में सुव्यवस्थित सामान इतना था कि मैं सबसे समृद्ध और संपन्न लगता था।यह सब साधु बेला के महंत जी की कृपा थी, वरना मैं ही सबसे मुफलिस मुसाफिर होता-चना चबाता  और अगर चना समाप्त हो जाता तो वीराने रेगिस्तान में 'ह्रीं फट स्वाहा' हो जाता।
     ‌ छड़ीदार ने अपनी भाषा में कुछ पढ़ कर छड़ी गाड़ दी।(त्रिशूल के आकार की यह छड़ी हिंगलाज पर्वत के किसी झाड़ की लकड़ी से बनाई जाती है। उस पर पताका लगाई जाती है और लाल पीले गेरुएं रंग के कपड़ा से उसे ढक दिया जाता है।)फिर गांजे का भोग लगाकर , चिलम को मुंह से सटाकर ऐसा कश खींचा कि चिलम आग उगलने लगी। हमारे पुरोहित के नेत्र आग्नेय हो गये। सब लोगों ने जलपान किया- किसी ने चाय चिवड़ा लिया, किसी ने मोदक फोड़े,हमने मेवा खाया। फिर सब कमर सीधी करने लेट गये।
         प्रातः 3:00 बजे के लगभग कासिम और शेर मोहम्मद अपने-अपने ऊंटों को उठ -बैठ कराने लगे ।छड़ीदार ने हांक लगायी।सब यात्रियों ने हाब नदी में स्नान किया। छड़ीदार  सबके लिए गेरुए रंग के वस्त्र के टुकड़े हाथ में लिए था। हम सब उसे चारों ओर से घेरकर खड़े थे उसने कड़कती आवाज में हम लोगों को यह शपथ दिलायी:
    'जब तक माता हिंगलाज के दर्शन करके पुनः यहां नहीं लोटेंगे, तब तक हम सन्यास के नियमों का पालन करेंगे। हम एक दूसरे की यथाशक्ति सहायता करेंगे। ईर्ष्या द्वेष निंदा के भाव हृदय में नहीं रखेंगे किंतु किसी भी हालत में अपनी सुराही का पानी किसी दूसरे को नहीं देंगे।यहां तक कि पति पत्नि को और पत्नि पति को, पुत्र पिता को और पिता पुत्र को, मां बेटे को और बेटा मां को भी अपनी सुराही का पानी नहीं देगा ।जो इस नियम का उल्लंघन करेगा उसकी मृत्यु निश्चित होगी।
[10:18, 6/6/2020] C M Katariya Principal Sikar: जय हिंगलाज-3क्रमश:👇
[10:19, 6/6/2020] C M Katariya Principal Sikar: जय हिंगलाज- 3
     यह शपथ दिलाने के बाद छड़ीदार ने प्रत्येक यात्री के सिर पर गेरुए वस्त्र का एक-एक टुकड़ा बांध दिया। फिर उसने यात्रियों से अपने में से एक आदमी को प्रधान चुन लेने को कहा। कदाचित् मेरे पास सबसे अधिक सामग्री होने के कारण मुझे संभ्रांत अभिजात व्यक्ति समझकर कम उम्र का होने पर भी मुझे लोगों ने प्रधान बनाने का सुझाव दिया।छड़ी दार ने मेरे नाम की घोषणा कर दी।
फिर छड़ी दार ने हम सबको हाब नदी में अपनी अपनी सुराही भरने का आदेश दिया। जलभरी सुराही लेकर हम लोग गड़ी हुई छड़ी के पास खड़े हुए। छड़ी दार ने छड़ी का पूजन किया। गांजे का भोग लगाकर दम लगाया और रक्त वर्ण आंखें लिए उसने छड़ी को उखाड़कर कंधे पर रख लिया और हिंगलाज माता की जय घोष करके चल पड़ा ।जय ध्वनि करते हुए हम सब लोग भी उसके पीछे पीछे चल पड़े हाब नदी पार की गई। बबूल पेड़ आदि झाड़ झाड़ियों को नोचते चबाते दोनों ऊंट चल रहे थे ।और फरसा संभाले दोनों ऊंट वाले अपने अपने ऊंट के बाजू में चल रहे थे उनके पीछे हम सब थे।
           पैरों के नीचे रेत पर कांटेदार झाड़ियां, ऊंची नीची जमीन ,कहीं टीले कहीं टीबे। टेढ़ा मेढ़ा रास्ता कांटों से भरा। पग पग पर कांटे चुभते थे। परंतु कहीं ऊंट आंखों से ओझल ना हो जाए और और रेतीले मैदान में भटक-भटक कर जिंदगी से हाथ न धोने पड़े, इस आशंका के मारे रुक कर पैरों से कांटा निकालते भी नहीं बनता था। रेगिस्तान में ऊंट ही पथ-दर्शक होते हैं, ऊंट वाले नहीं। कहां जाना है ,कौन सा रास्ता है ऊंट वाले से ज्यादा ऊंट ही जानते हैं। जिधर  पानी मिलने की संभावना रहती है उधर का ही रास्ता वे पकड़ते हैं। उनके पथ प्रदर्शन को न मानकर यदि ऊंट वाले वा किसी अन्य ने अपनी अकल भिड़ायी, तो फिर खुदा हाफिज। जाना कहीं और जा पहुंचे कहीं।
         बीस बीस मन का भर लादे हुए दोनों ऊंट अलमस्त चाल से चल रहे थे।पौ फट रही थी, अंधकार भाग रहा था और झाड़ियां  टहनी रूपी हाथ हिलाकर हमसे विदा ले रही थी। सूर्य की किरणों में तरुणाई आने के साथ रेत गरम होने लगी। पैर झुलसने लगे और मैं उछल उछल कर पैर रखने लगा था।एक बार उछला तो मैं मुंह के बल गिरकर धूल चाटने लगा। माता हिंगलाज ने  कृपा की कि कंधे पर लटकती हुई सुराही न टूटी और न छलकी। जल्दी उठा और दृष्टि-पथ से
ओझल होते तूफान और गुलबदन की ओर दौड़ पड़ा। किंतु दौड़ कहां सका!रेत पैर पकड़कर पीछे घसीट लेती थी। आगे-पीछे,दांयें बांयें चांदी सा चमकता हुआ बालू का विस्तार और ऊपर से अग्नि अभिषेक कराता हुआ सूर्य! मैंने हिमालय में हिम नदियों को पार किया था, हिम तूफानों को झेला था किंतु इस आग के दरिया ने तो मुझे विपन्न बना डाला।
          बालू के एक‌ ऊंचे टीले पर चढ़ते ही दोनों ऊंट और अन्य सहयात्री दिखाई पड़ गये। सुराही संभाली और फिसल कर ढलान पार कर गया, और गुलबदन की परछाई पकड़े हुए चलने लगा।कुछ दूर चलने पर मीठे और ठंडे जल की एक कृशकाय नदी मिल गयी।मानो अमृत मिल गया! छड़ीदार ने छड़ी गाड़ दी।छड़ी को लांघकर कोई नहीं था सकता था।
        ऊंट बैठा दिये गये।सामान उतार लिया गया। कुछ लोग खाना बनाने की धुन में लकड़ियां ढूंढने लगे।थकान से बेदम कुछ लोग लेट गये।मैं नदी में घुस गया।कंटकबिद्ध शरीर नीचे से कटिपर्यंत जल रहा था। पानी में पड़े रहने से उसे कुछ शांति मिली।बाहर निकला तो जीवराज भाई की गोद में लेटी जयाबेन जल बिन मीन की तरह तड़प रही थी। घुटनों तक उसके पैर लहूलुहान थे और साड़ी क्षत-विक्षत होकर उसकी देहयष्टि को ढंकने में लाचार हो गई थी।लोगों ने सहारा दिया जीवराज भाई ने उसका मुंह धोया,उसे जल पिलाया।तब वह कुछ चैतन्य होकर, कसमसाकर अपने अंग ढकने लगी।एक ऊंट वाला दोनों ऊंटों को चराने ले गया।
          रेगिस्तान में लकड़ियां ढूंढना मानो रत्न खोजना है।लोग बीन चुनकर जो लकड़ियां लाते,वे समिधा जैसी थी। समस्या थी कि चूल्हा कैसे बने?पत्थरों का वहां नाम निशान नहीं था।उन लकड़ियों को जैसे तैसे चिनकर,सुलगाकर कच्ची पक्की रोटियां बनाती गयी और गले के नीचे उतारी गयी। मेरे पास कुछ पकवान थे। मैंने उन्हें खाकर भर पेट नदी-जल पिया। हिंगलाज यात्रा का नियम है कि हर यात्री एक एक रोटी ऊंटवालों को दे और जहां कुआं हो वहां कुएं‌ के रखवाले को भी एक एक रोटी दी जाये।उस रेगिस्तान में दस-बीस कोस में मीठे पानी का कोई कुआं मिल जाये तो यात्रियों‌ का परम सौभाग्य। लास बेला रियासत का आदेश था कि जो आदमी जहां पर कुआं‌ खोदे वह वहीं रहकर उसकी रखवाली करता रहे,साथ ही दस-बीस कोस के घेरे में जो भी घटना घटे,उसकी सूचना निकटवर्ती पुलिस चौकी को दिया करे। और उसका वेतन?जो भी यात्री उधर से गुजरे और वहां खाना बनाये,वह एक रोटी कुंए के रखवाले को दे।यह नियम हम सबको कूच से पहले ही समझा दिया गया था,ताकि कुएं के पहरेदार का हक न मारा जाये।
‌         लोग खा पी रहे थे। छड़ीदार चिलम में गांजा भरकर छड़ी भवानी को भोग लगाकर दम पर दम लगा रहा था और आग्नेय नेत्रों से इधर-उधर ऐसे देख रहा था,मानो बेताल घूर रहा हो। छड़ीदार को भी पेट भरने के लिए कुछ चाहिए।इसका किसी ने ख्याल नहीं किया।शायद ऊंटवालों,कुएं के रखवालों की तरह उसे रोटी देने का नियम न हो। किंतु थकी हारी जयाबेन छड़ीदार को नहीं भूली। उसने अपने हिस्से में से आधा भोजन छड़ीदार को दे दिया। छड़ीदार खुश हो गया और जीवराज भाई कुनमुनाने लगे। ऊंटवालों को सबने एक एक टिक्कड़ निकाल कर दिया था। मेरे पास चना कुरमुरा था; वह मैंने ऊंटवाले को दिया।शायद वह मात्रा में रोटी से अधिक था; इसलिए बुजुर्ग ऊंटवाले ने अपनी बलोची भाषा में मुझे बार-बार असीस या धन्यवाद दिया। मैंने साधु बेला के महंत जी को स्मरण किया,जिनकी कृपा से मैं रंकदानी बन सका था।ऊंट चराकर दूसरा ऊंटवाला भी आ गया।ऊंटों को नदी किनारे बैठाकर पानी पिलाया गया। देर तक वे पानी पीते रहे, जैसे दो तीन दिन के लिए पानी जमा कर रहे हों।
‌         सामान ऊंटों पर लादा जाने लगा। सबने अपनी-अपनी सुराही में जल भरा।सूर्य अस्त हो रहा था। क्षितिज रक्तवर्ण हो रहा था।धरती ने घूंघट काढ़ लिया था।वह क्षीणकाय नदी अस्तंगत सूर्य की लोहित किरणों से सिंदूर वर्ण हो गयी थी।ऐसा लगता था कि घूंघट काढ़े हुए धरती की मांग में सिंदूर की रेखा है।
‌                छड़ीदार ने हांक लगायी। हम सब लोग छड़ी के सामने खड़े हो गए। गांजे का भोग लगाकर छड़ीदार ने कश खींचा तो चिलम जल उठी।फिर सब लोगों ने छड़ी को प्रणाम किया। छड़ीदार ने छड़ी को उखाड़ कर कंधे पर रखा और जय माता हिंगलाज का उच्च घोष करके चल पड़ा। उसके पीछे चल कर ऊंट और हम सब नदी पार हुए।
   तारागण  टिम टिमा रहे थे; चंद्रमा का कुछ पता नहीं था। नीचे रेत का समुद्र ऊपर अंधकारमय असीम आकाश। आगे-आगे ऊंट चल रहे थे और उन्हें घेरे हुए हम सब चल रहे थे।ऐसा लग रहा था कि शून्य आकाश में हम लोग अंतरिक्ष यात्री बन कर घूम रहे हैं। दिन में जो बालू आग बनी हुई थी वह अब शीतल बन कर हमें दुलरा  रही थी, पांव पकड़कर जिद कर रही थी कि जरा ठहर जाओ, जल्दी क्या है। हम एक पग आगे बढ़ते तो वह दो पग पीछे खींच लेती थी।पर हमें भय था कि कहीं बालू के मोह में फंसे गये तो दीन दुनिया कहीं के नहीं रहेंगे।
जय हिंगलाज-4
हमें में से अधिकांश चाय के गुलाम थे। एक बार कहीं मद्धिम आग जलती देख कर कुछ लोग चाय के लिए पागल हो उठे। किंतु बुजुर्ग ऊंट वाले कासिम ने डपट दिया। पता नहीं वह आग कैसी थी।दिनमें रेगिस्तान में मृगतृष्णा आदमी को भटका कर मारती है। रात में शायद आग भी कोई तृष्णा हो। कासिम मियां न जाने क्यों मुझ पर मेहरबान हो गए। मेरे पांव लड़खड़ाते देख, उन्होंने मेरी सुराही स्वयं संभाल ली।(उनका यह सहयोग यात्रा की वापसी तक बरकरार रहा।) रात के चौथे पहर ऊंट एक जगह रुक गए। वहीं आसन बिछाकर सब लेट गए और लेटते ही नींद आ गई।सुबह फिर प्रस्थान।
‌          प्रतप्त बालूका-कण , प्रचंड सूर्यातप, दोनों हमें भून रहे थे। पदतल से लेकर सहस्रार चक्र तक सारे शरीर में होली जल रही थी। घुटनों तक पैर रेत में धंस जाते। जब धंसे पैर को खींचकर एक पग,  आगे धरने का प्रयास करते तो दो पग पीछे फिसल जाते थे। गर्मी भूख और प्यास से सारा शरीर जलता, सूखता एवं पिघलता सा लग रहा था।क्या कोई अंत नहीं है इस आग के दरिया का!
‌         चंद्रबदना चुलबुली युवती जयाबेन का मुंह सूखकर करेला बन गया था। वह  आठ-दस पग चलती और मुंह के बल गिर पड़ती। पैर भारी होने के लिए उसने माता हिंगलाज के दर्शनों की मनौती मानी थी; किंतु वही मनौती माना उसके पैरों में बेड़ी बनकर उसे आगे नहीं बढ़ने देती थी। उसकी सुराही का पानी भी उसका साथ छोड़ चुका था और वह पपीहे की तरह पानी मांग रही थी। अधेड़ पति जीवराज भाई घबरा गए थे। अपनी सुराही का पानी वे दे नहीं सकते थे। भयंकर धर्म संकट उपस्थित हो गया था।
‌ नागनाथ अखाड़े के महंत ने मुझसे जोर देकर कहा था कि सुराही का पानी मरुभूमि में सदा साथ नहीं दिया करता है। दो चार सेर कच्चा प्याज रख लो; गला सूखने पर,प्यास लगने पर प्याज का टुकड़ा मुंह में डालकर उसका रस चूसना तृषा मिट जाएगी। मैंने उनकी सलाह शिरोधार्य करके पांच सेर प्याज खरीद लिए थे और दस बीस झोले में रखकर शेष ऊंट पर लदवा दिए थे। किसी को किसी हालत में पानी न देने के शपथ-बंधन में मैं भी बंधा हुआ था। इसलिए मैंने झोले से एक प्याज निकाल कर जया बेन को दिया कि वह थोड़ा-थोड़ा खाती हुई उसका रस चूसती हुई चले।
‌ उसने प्याज लिया ही था कि जीवराज भाई ने हाथ मारकर गिरा दिया और गुजराती में कहा-"हम पुष्टिमार्गीय वैष्णव हैं, धर्म बिगाड़ने नहीं आए हैं।"जया भौंचक्की रह गई और प्याज उठाकर में आगे बढ़ गया।
‌        मैं सोचने लगा कि किस प्रकार संप्रदाय ने धर्म को ढंक लिया है। जीवराज भाई जैसों के मत में लहसुन प्याज खा लेने मात्र से मनुष्य पतित हो जाता है-पलाण्डुगृंजनचैव मत्या जग्ध्वा पतेद् द्विजः। उन्हें कैसे समझाया जाए कि धर्म सत्य का प्रकट रूप है सत्य वही है जो त्रिकाल सत्य हो। फिर आपद्धर्म नाम की भी कोई चीज है।
‌ पति सहित जयाबेन दो से एक फर्लांग पीछे चल रही थी और यह दूरी बढ़ती ही जा रही थी। रेगिस्तान में अपने दल से एक दो फर्लांग भी पिछड़े जाने का अर्थ है भटक-भटक कर मर जाना। मैं यह सोच ही रहा था कि कासिम मियां ने अचानक घूम कर पीछे देखा। ऊंटों को छोड़कर अपनी भाषा में कुछ बड़बड़ाता हुआ वह पीछे की ओर भागा।दोनों ऊंट और यात्री रुक गए,थोड़ी देर बाद देखते हैं कि जयाबेन कासिम मियां के कंधों पर लदी है और जीवराजभाई मरूभूमि को दंडवत करते हुए गिरते उठते चले आ रहे हैं।
‌    जया अचेत थी। धधकती हुई बालू में कंबल बिछाकर उसे लिटा दिया गया और उसी अग्निकुंड में हम लोग भी बैठ गए। जीवराज भाई को विश्वास हो गया कि जया बचेगी नहीं वे रोते जाते और कांपती आवाज में 'श्रीकृष्णं शरणं मम' का जप करते जाते थे। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनसे कहा कि, इसके सिर और मुंह पर पानी के छींटे दो! चैत आ जाए तब पानी पिला दो। बोले कि, इसकी सुराही तो सूखी है उसमें पानी कहां है ?मैंने कहा कि अपने कंधे पर क्या अमृत लादे हो वही इसे क्यों नहीं पिलाते ?बोले शपथ ली है तो कैसे अपनी सुराही का पानी पिलाऊं?
‌         मैं झल्ला पड़ा-'शपथ में यही तो बताया गया था न कि अगर कोई अपनी सुराही का पानी किसी दूसरे को देगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी ।तुम्हारी पत्नी जब पानी के बिना मर जाएगी, तब तुम्हारी हिंगलाज-यात्रा निरर्थक हो ही जाएगी, पत्नी रहेगी नहीं तो बच्चा कौन पैदा करेगा? सो इसे पानी पिलाकर तुम भी इसके साथ इस अग्नि लोक में सो जाओ तो क्या हर्ज है!'मेरी तीखी बात से जीवराज भाई क्रोध में जल उठे।दूसरे साथियों ने भी कहा कि ऐसा नहीं होगा तीर्थ यात्रा में हम अधर्म नहीं होने देंगे।
‌      तब मेरा ब्रह्म जाग्रत हुआ। मैंने कहा, 'मैं यह अधर्म करने जा रहा हूं
। देखता हूं कि कौन रोकता है और कासिम मियां के ऊंट पर लटकी हुई अपनी सुराही लेकर मैं जया के सिर पर पानी डालने लगा वह सुगबुगाई और जीभ निकालकर पानी चाटने लगी।मैंने उसके मुंह पर पानी उंडेला, उसे चाटते हुए जया ने मुंह फैला दिया तो पतली जलधारा छोड़ने लगा।तृप्त होकर वह आंखें खोल कर इधर-उधर देखने लगी। मैंने बचा हुआ पानी उसके मुंह पर उंडे
ल कर सुराही खाली कर दी और अपनी क्रूर शपथ को भंग कर दिया।
‌          ०००
‌थोड़ी देर बाद धर्म-प्रवण यात्रियों ने आगे की मंजिल के लिए प्रस्थान किया।उनके बीच एक मात्र अधर्मी मैं भी चल पड़ा।दो घंटे चलने के बाद हम एक ऐसे स्थान पर पहुंचे, जहां कुआं था और एक प्रकार दालान था।दालान यात्रियों के लिए लासबेला स्टेट की ओर से बनवाया गया था। बताया गया कि महीने-डेढ महीने की यात्रा के रास्ते में यही एक पक्का दालान और कुआं है।
‌      मैं कुएं पर स्नान करने चला गया। पानी खारा था।उसी को पिया और खूब छककर स्नान किया।इतने में जयाबेन भी अपने पति के साथ आ गई।उन दोनों ने भी स्नान किया।स्नान के बाद जीवराज भाई मेरे पास आते,बोले जया प्रसाद बना  रही है,आप भी अपना आटा चावल दे दीजिए।मैं इस अप्रत्यासित लाभ को छोड़ना नहीं चाहता था।ऊंट पर से उतरवाकर आटा,दाल,चवल,घी,नमक,सब दिया।जयाबेन मेरे लिए अन्नपूर्णा साबित हुई।खाना खाया गया। दोनों ऊंटवालों को नियमानुसार सबने रोटियां दी।उन दोनों ने भोजन किया,फिर एक दोनों ऊंटों को लेकर उन्हें चराने चला गया।खा-पीकर सब सो गये।
‌        भोर होने से पहले दोनों ऊंट चरकर आ गये।फिर वही खटर-पटर शुरू।सामान लादा गया।छड़ी उखाड़ी गयी।जयकारे लगाए गए और सब चल पड़े।दो घंटे बाद सूर्य की गरम किरणें पीठ को तपाने लगीं। सुराही का खारा पानी गरम हो उठा।प्यास के कारण जीभ तालू से सटने लगी। अधिकांश तीर्थयात्रियों का धीरज धर्म छूटने लगा।और वे प्याज के लिए हाथ पसारने लगे।जयाबेन ने भी मांगा तो मैंने कहा कि पहले जीवराज भाई से पूछ लो।वह हिकारत भरी निगाहों से पति की ओर देखने लगी। जीवराज भाई सिर नीचा किये आगे बढ़ गये और जया मेरे झोले से प्याज निकाल कर उसे चबाने लगी।
‌      पश्चिम हवा के तीव्र झोंके आ रहे थे।
‌जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं वैसे ही इस धूल के मृत सागर में गर्म बालू की तरंगें उठने लगी। मुंह,नाक,आंख और कान में रेत बरबस घुस रही थी।ऊंटों ने पगुराना बंद कर दिया था।ऊंचे टीले पर चढ़ते,ढलान पर फिसलते,हम दिन भर आगे बढ़ते रहे।ऊंट बलबला बलबला कर मुंह से झाग निकाल रहे थे। सुराही का खौलता पानी पेट में जलधारा पैदा कर रहा था।मगर प्याज के टुकड़े प्राणदायी सिद्ध हो रहे थे।जयाबेन से सारे यात्रीदल की सहानुभूति हो गयी थी;लोग बारी बारी से उसे ढोते चलते थे। जीवराज भाई के मुंह से पेन निकलने लगा।हीरजी भाई बिना चीत्कार किये धराशायी हो गये। किसी तरह उन्हें साथ लेकर आगे बढ़े।
‌       दिन ढलते एक ऊंचे टीले से दूर बहुत दूर काले काले धब्बे दिखाई दिये। कासिम मियां ने बताया कि यह शोणवेणी के घर हैं,दिन छिपने के बाद पहुंच जायेंगे।यह सुनकर ऊपर को प्रयाण करते प्राण रुक गये।दिन छिपने के बाद हम शोणवेणी पहुंच गये।
‌      लासबेला की राजधानी यह शोणवेणी है।उत्तर से दक्षिण की ओर समुद्र तक बेतरतीब सरक गयी है। किसी धर्मात्मा मारवाड़ी सेठ ने यहां एक धर्मशाला और उसके निकट कुआं बना दिया था।सब लोग हाल-बेहाल चारों खाने चित हो गये।सब प्रयास से बेहाल थे किंतु कौन पानी भरे? इतना दम किसमें था?
‌ शेर मोहम्मद और कासिम मियां ने ऊंटों को बैठाकर सामान उतारा।फिर कुंए से पानी खींच खींच कर पास के कुंड में उंडेला। घुटने टेक कर दोनों ऊंट चभाक् चभाक् आवाज करते हुए पानी पीने लगे।उस आवाज से हम यात्रियों की नसें फड़कने लगी।पैरों को घसीट कर हम लोग कुएं के पास तक पहुंचे।शोणवेणी की दस-बारह हिंदू नारियां कुएं से पानी निकालकर हमें पिलाने लगी।बच्चे-बूढ़े हमें आठवें आश्चर्य की तरह खड़े देख रहे थे।
‌          पानी पीकर हम सबने स्नान किया, जिससे
थकावट दूर हो गयी। फिर भोजन की तैयारी शुरू हुई। जीवराज भाई और जयाबेन ने मुझे अपने परिवार का अंग मान लिया था इसलिए मेरा भोजन इनके साथ ही होने लगा था।सब लोगों ने ऊंटवालों को एक-एक रोटी दी। शेर मोहम्मद ऊंट चराने चला गया।
‌            धर्मशाला बड़े आराम की जगह थी।सब लोग सोने की तैयारी करने लगे।तब
जय हिंगलाज-5
गांजे का दम लगाते छड़ीदार बोला कि कल दिन भर यहीं रहना पड़ेगा।यहां पर तहसील यात्री-कर देना पड़ता है,अपना नाम-गाम लिखवाना पड़ता है। उसके बाद ही आगे की यात्रा होती है।आश्वस्त होकर सब सो गये।जब नींद खुली तब तक दिन चढ़ आया था।नाश्ता करते-करते दस बज गये। छड़ीदार कहने लगा कि टैक्स लेने वाले अधिकारी अब नहीं मिलेंगे।वे सुबह सुबह ही बैठते हैं। सोचा फिर भी देख लेना चाहिए।
         शोणवेणी में घुसे तो आदिमकालीन बस्ती का स्मरण हो आया।कैसी बेतरतीब गलियां, और कितनी बदबू! दिल्ली और बंबई की झोंपड़पट्टियां उस राजधानी से लाख गुना बेहतर ! छोटे-छोटे मकानों की छतें ताड़ खजूरों के पत्तों से ढंकी और टीन की जगह जानवरों के चमड़े बिछाते गये थे।वहां का मुख्य बाजार मछली का था; और मुख्य भोजन भी वही था।चारों ओर मछलियों की बदबू। बीच-बीच में हिंदुओं के घर देखने को मिले; उनमें कुछ सफाई गन्दगी से लिपटी हुई मिली। टैक्स अफसर का दफ्तर भी माशाअल्लाह था।वह भी बंद था।नाक दबाकर लौट आये।दिन-भर भोजन,शयन, जलपान में व्यतीत हुआ।
       अगले दिन भोर से पहले उठकर तैयार होकर ऊंटों समेत कार्यालय में पहुंचे।सब यात्रियों के नाम-पते लिखे गये।ऊंटवालों ने भी अंगूठे की छाप दी।टैक्स अदा किया गया। अधिकारी ने डाकुओं से सावधान रहने की चेतावनी दी और रास्ते में कहीं डाकुओं का दल दिखे तो कुएं के पहरेदार को खबर देने की हिदायत देकर हमारी यात्रा के लिए शुभकामना की।
            कंधे पर छड़ी रखकर छड़ीदार चल पड़ा। उसने बताया कि अब हम चंद्रकूप चल रहे हैं। चंद्रकूप बाबा की आज्ञा लेकर ही हिंगलाज जाया जा सकता है-जय बाबा चंद्रकूप!हम सबने भी जयघोष किया-जय बाबा चंद्रकूप!
        अब हमारे ऊंट हमें उत्तर की ओर ले          जा रहे हैं। बियाबान रेगिस्तान न आदम न आदमजाद!केवल माता हिंगलाज का आसरा है।बबूल और रीवा के पेड़ों का जंगल पार करके ऊंची चढ़ाई चढ़कर उतरे तो मैदान मिला। समुद्र लहराता हुआ फिर दिखने लगा।सूर्य ढलने लगा; किंतु पानी के कुएं का कहीं ठिकाना नहीं, जहां ठहरकर दाना-पानी करें ,सुस्तायें।
      ऊंट जैसा चाहते हमें चला रहे थे। कभी वे उत्तर की ओर मुड़ते थे,कभी दक्खिन की ओर चढ़ते उतरते।दूर एक पहाड़ दिखाई पड़ा। छड़ीदार ने घोषणा की कि हमारी तीर्थयात्रा असल में अब आरंभ होगी। सामने जो पहाड़ दिख रहा है,वह गुरु-शिष्य का पवित्र स्थान है; वहां पूजा दान-दक्षिणा आदि धार्मिक कृत्य किये जायेंगे। पहाड़ नजदीक आने लगा।एक पगडंडी पहाड़ पर चढ़ती थी, किंतु सामान लादे हुए ऊंट उससे नहीं जा सकते थे।वे समुद्र की ओर मुड़ गये।दो घंटे का रास्ता अब चार घंटे में तय करना पड़ेगा।
        सब लोग ऊंटों के पीछे पर्वत के कटि प्रदेश में चल रहे थे। आगे चलकर पहाड़ का  दर्रा मिला।ऊंटवालों ने सावधान किया कि इस जगह डकैत, हिंसक जीव,मिल जाया करते हैं।यह सुनते ही जयाबेन जीवराज से लिपट गयी। शेर मोहम्मद फरसा तानकर आगे चला।उसके बाद हम सब।सबके पीछे ऊंट लिये कासिम मियां फरसा संभाले हुए हांक देते चल रहे थे।दर्रा ढलुवां था।हम सबने राम राम करके दर्रा पार किया तो समतल जमीन मिल गयी।ऊंट दायें मुड़ गये।घोर अन्धकार में शेर मोहम्मद ने लालटेन जला ली।कुछ लोगों ने मोमबत्तियां जलाकर हाथ में ले ली।कुछ दूर चले कि शेर मोहम्मद ने जोर से आवाज दी।उसकी हुंकार सुनते ही सबकी नसें ढीली पड़ गयी। दौड़ कर कासिम आगे हो गये।देखा कि एक हिंस्रजीव को -शायद वह भेड़िया था,विषधर सर्प अपनी कुंडली में लपेट रहा है। शेर मोहम्मद ने एक ही फरसे से दोनों का काम तमाम कर दिया।
पर्वतीय अंचल से निकल कर और कंटीली झाड़ियों व बबूल के वृक्षों के जंगल को पार करके रात के दो बजे हम गुरु-शिष्य के स्थान पर पहुंच गए।रेत पर दो स्याह पत्थर खड़े हुए हैं।एक गुरु पाषाण है दूसरा शिष्य पाषाण। छड़ीदार ने छड़ी गाड़ कर उसका पूजन किया और गांजे का भोग लगाकर दम लगाया। उसके आदेश से सबने अपनी-अपनी सुराही से थोड़ा थोड़ा जल गुरु शिष्य शिलाओं पर उंडेल कर उन्हें तृप्त किया। छड़ीदार ने शिलाओं की पूजा की और सबने उसे दक्षिणा दी,तब छड़ीदार ने हमें गुरु शिष्य की कथा सावधान होकर सुनने का आदेश देकर कहना आरंभ किया।
एक थे गुरु और एक था उनका शिष्य। दोनों देवी हिंगलाज का दर्शन करके लौट रहे थे।रास्ते में जब प्यास लगती गुरु शिष्य से पानी मांगते थे और शिष्य अपनी सुराही का पानी उन्हें पिला देता था। गुरु के मन में पाप था,वह अपनी सुराही का पानी खर्च नहीं करना चाहते थे। शिष्य गुरु भक्त था,भला वह गुरु को पानी देने से कैसे इंकार करता।अब हम जिस स्थान पर हैं, वहां पहुंच कर शिष्य की सुराही का पानी खत्म हो गया।वह प्यास से तड़पने लगा। गुरु से पानी मांगा तो गुरु ने देने से इंकार कर दिया।"हाय पानी!हाय पानी!"करता हुआ शिष्य इस मरुभूमि में सदा के लिए सो गया।यह देख गुरु जी भर से कांप उठे। उन्हें मरे हुए शिष्य के लिए गम न था।वे तो बस इसकी चिंता में बेहाल थे कि पानी खत्म हो जाने पर कहीं उनकी भी यही दशा न हो।तभी अचानक चरचराकर फूटी और सारा पानी बालू पी गयी। अंततः गुरु भी प्यास से "हाय पानी!हाय पानी!"करते हुए शिष्य की बगल में गिरकर सदा के लिए सो गये।
कथा सुनाने की दक्षिणा सबने छड़ीदार को दी और सब बैठ गये।सबके दिमाग में यह बात धंस गयी कि अपनी सुराही का जल हर तरह से सुरक्षित  रखना है। कुछ लोगों ने तो अपनी सुराही का पानी किसी को न देने की प्रतिज्ञा,जो यात्रा के आरंभ में ली थी मुंह खोलकर दुहराती भी।
     आधा घंटा विश्राम और फिर गंतव्य की ओर प्रस्थान। गंतव्य वहीं जहां कुआं हो। पूछने पर छड़ीदार ने बताया कि पौ फटते ही अगले कुएं पर पहुंच जायेंगे।
      पौ फटने के काफी बाद जब प्राची दिशा से सूर्य की तीव्र किरणें हमारे दक्षिणांगो को बींधने लगी,तब कुआं मिला। दो-तीन वृक्ष और झाड़-झंखाड़ भी वहां थे।डेरा डाल दिया गया।ऊंट चरने लगे और  जिसे जो जगह भारी वहां अपना कपड़ा बिछाकर सब सो गये। परंतु सूर्य का उत्ताप बढ़ने से नींद उचट गयी।हाथ मुंह धोने कुएं पर गया। चार-पांच हाथ गहरा गड्ढा।चारों ओर बालू -यही था कुआं। झांककर अंदर देखा तो पानी में ऊंट की लैंडी, खरपतवार तैर रहे थे।उफ़, यही पानी पीना पड़ेगा!मन में जुगुप्सा भर गयी।मगर असली प्रश्न यह था कि शौच आदि के लिए पानी कैसे निकाला जाये? नीचे कूदकर पानी भरें तो ऊपर चढ़ें कैसे?चढ़ते समय बालू खिसक गयी तो यही कुआं समाधि बन‌ जायेगा।इसी पशोपेश मैं खड़ा था कि अन्य यात्री भी आ गये। बुजुर्गवार ऊंट वाले ने आकर मदद की-वह कुछ दूर बालू के एक गड्ढे के पास जाकर कुएं के पहरेदार को ले आया। उसने एक के बजाय दो-दो रोटी की मांग की।जब सबने हां की तो, उसने जंजीर को डोल में फंसाकर पानी निकाला।जो वैष्णव थे उन्होंने स्वयं पानी खींचा।आंख मूंदकर जैसे तैसे चिड़िया-स्नान किया।उसी पानी को छान-छूनकर रसोई के योग्य बनाया गया। दाल-भात रोटी सबने बनाती। कुछ रोटियां कुछ लोगों ने रास्ते के लिए रखली।
निरंतर आगे.
जय हिंगलाज-6
पर कुएं वाले को रोटी देने में जो कपट व्यवहार किया गया, उससे वह बौखला उठा और चीखता-चिल्लाता रहा। कुछ लोग पैसा देने लगे,तो उसने कंकड़ की तरह पैसे बैंक दिये।लोग अपने साथ रोटियां बांधे हुए थे;पर कुएं के पहरेदार का पेट काटने में उन्हें हिचक नहीं थी। महात्मा गांधी अपनी नित्य प्रार्थना में नरसी मेहता का यह पद गवाते थे-
"वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे।"हमारे दल के अधिकांश यात्री गुजराती, काठियावाड़ी वैष्णव जन ही थे; परंतु पीर पराई जानना-समझना उनके वैष्णव-कोष में ‌नहीं था।भूख का मारा हुआ कुएं का पहरेदार कितना पीड़ित था,इसका अनुभव किसी वैष्णव ने नहीं किया।
‌       कुएं का रखवाला अपने स्वजनों-सुहृदजनों से अलग,गांव बस्ती से पचासों मील दूर पेट की ज्वाला बुझाने के लिए ही तो कुआं खोदता है।हफ्तों भूखा पड़ा रहता है और इंसान को भगवान समझकर,पलकें बिछाकर उसकी बाट जोहता है सिर्फ रोटी के लिए।रोटी मिल गयी तो मानों धर्म, अर्थ, काम,मोक्ष चारों मिल गये।कुआं खोदने, पानी निकाल लेने से उसके कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती।आंधी द्वारा उड़ाते गये बालू के टीबों से कुआं पटकर कहीं टीला नहीं बन जाते, आसपास की रेत झरकर पानी को न सोख ले, तपती रेत से त्राण पाने के लिए विषधर सांप कहीं कुएं को अपना बसेरा न बना ले और अंधेरी रात में उधर से गुजरते हुए ऊंट या मनुष्य उसमें गिरकर कहीं प्रयाण न गंवा बैठे-यह सब देखना भी उसी का काम है। फिर इसकी कोई गारंटी नहीं कि कुआं खोदने पर पानी मीठा ही निकलेगा। बीस-पच्चीस मील पर यदि मीठे पानी का कुआं मिल गया तो सौभाग्य की बात है।अन्यथा पचासों मील मुंह से फेन चुआते हुए चले जाइए-फेन भी सूख जायें,शरीर भी सूखकर रेगिस्तान का गिरगिट बन जाये।
‌ जहां कहीं मीठे जल का कुआं हो, वहां से बीस-पच्चीस मील के घेरे में रहने या ठहरे हुए खानाबदोश या गडरिए पानी लेने आते हैं और मसकों में पानी भरकर बकरों की या अपनी पीठ पर लादकर ले जाते हैं।उनकी ये मसकें देखकर ही उनकी मुफलिसी का परिचय मिल जाता है।डेरे पर जाकर ये मसकें गड्ढा खोद कर रेत में गाड़ दी जाती हैं। फिर कृपण के धन की तरह उस अमृत जल का उपयोग थोड़ा-थोड़ा की दिनों तक किया जाता है।
‌इस प्रकार जो रेगिस्तान में कुआं खोदता और उसकी रखवाली करता है,वह उत्कट तप तपता है। यदि वह तपस्या न करे तो हिंगलाज देवी के दर्शन असंभव है हो जायें। परंतु उसी तपस्वी को रोटी देने में धर्मात्मा तीर्थयात्री दिवालिया हो जाने का भय अनुभव करते हैं और वे वंचक बन जाते हैं।नितांत ग्लानिकर अनुभव था यह।
‌        चाय नाश्ते के बाद सबने अपनी सुराही संभाली,ऊंटों पर सामान लदवाया। छड़ीदार ने छड़ी उखाड़कर 'जय हिंगलाज' का घोष किया। हमारे प्रस्थान के साथ ही सूर्य भी अस्तमित हो गया।
‌        धरती-आसमान का भेद मिट गया था।निविड़ अंधकार।डाकू, जंगली जानवर आकृष्ट न हों,इस भय से ऊंटवालों की लालटेन बुझी रही। एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर या कंधा थामकर हम अंधों की तरह टटोल -टटोलकर उस अंधकार के महासमुद्र में चल रहे थे।घोर सन्नाटा। झिल्ली-झिंगुर,सियार भेड़िया किसी की भी कोई आवाज नहीं।जब दो में से कोई ऊंट बित्ता-भर जीभ बाहर निकाल कर उसे मोड़कर भलभल की आवाज करता तो रोम-रोम कांप उठता था। हमारे हृदयों में भर समाया हुआ देखकर छड़ीवाले ने चिंघाड़ कर 'हिंगलाज माता की जय!' का घोष किया।घोष की गूंज हमारे तन -बदन को केले के पात की तरह कंपा गयी, किसी के मुंह से जयकार न निकला।
‌ दस मिनट बाद बुजुर्ग कासिम ने ललकारा-लेटजाओ ! और दोनों ऊंट वाले 'हिट्ट-हिट्ट,बैट्ठ-बैट्ठ ! ' कहते हुए दोनों ऊंटों को बैठाकर उनकी कोटनी पकड़ कर मुंह छिपाकर बैठ गये। हमारे लेटते ही आंधी आ गयी- पीली आंधी।काला क्षितिज पीला हो गया। हजारों मन रेत सिर पर से उड़ रही थी।पंद्रह प्रलयंकारी मिनटों तक सब रेत में समाधि लिये पड़े रहे। फिर आंधी चली गई।शेर मोहम्मद ने सबकी गिनती की।दो यात्री कम पड़ रहे थे-एक राजस्थानी,एक गुजराती। लालटेन मोमबत्ती जलाकर सब लोग उन्हें ढूंढने इधर-उधर फैल गये। कहीं कुछ पता नहीं चला। ढूंढते-ढूंढते सबेरा हो गया और तब बालू के दो उभार दिखे। उन्हें देखते ही ऊंट वालों ने कहा-'या अल्लाह!' और बालू हटायी। दोनों यात्री स्वर्ग सिधार चुके थे। उन्हें वहीं रेत से ढंक कर जब हम लोग उदास मन से लौटे,तो ऊंटों के पास हमारे आठ-दस साथी औंधे-तिरछे पड़े मिले।उनकी बालू झाड़ी गयी, उन्हें सचेत किया गया। जीवराज दंपति भी थे,जो एक दूसरे से सटे सांसें गिन रहे थे। दोनों ऊंट वालों ने प्याज का रस निकाल कर सबके कान और नाक में छोड़ा। फटाफट  छींकें आती,सब चैतन्य हो गये।दो को खोकर शेष यात्री-दल चल पड़ा गंतव्य की ओर।
‌         'गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंन्ति पंडिता:'(गीता) और हम सब पंडित बनकर आगे बढ़ रहे थहाजिर को हुज्जत नहीं गैर की तलाश नहीं।'-यही सबके जीवन का फिलसफा। गुरु-शिष्य के शिला-खंडों पर पानी चढ़ाकर उनको तृप्त किया जाता है,उनकी कथा कही-सुनी जाती है, किंतु हमारे दो साथियों की समाधि-शिला कौन स्थापित करेगा,उन पर कौन पानी चढ़ायेगा? वे तो अनंत बालूका-कणों में समा गये।
‌ क्या वापस इसी रास्ते से आयेंगे? मैंने कासिम मियां से पूछा।बोला-नहीं हुजूर,यह तो चंद्रकूप का रास्ता है,लौटते
‌वक्त समंदर का किनारा पकड़कर उससे कुछ दूर दूर वापस होना है,इधर से नहीं।यह सुनकर मैं रुक गया और बालू की उन ढेरियों की ओर मुंह करके मृत साथियों को प्रणाम किया। भगवान से प्रार्थना की कि ऐसा धर्मदंड किसी और को न दें। दोनों सहयात्री धर्मभीरू,सज्जन और मितभाषी थे। किंतु करता फायदा उनके गुणानुवाद से,जबकि हम अपने प्राणों का मोह न त्यागकर उन्हें अनाथ छोड़कर चले आए।
‌सहसा बादल उमड़े। आसमान उदै रंग का हो गया। ऊंट वाले और छड़ीदार एक साथ गरजे- 'होशियार! होशियार!'तुरंत ऊंट बैठा दिए गये।दूध का जला छाछ फूंक फूंककर पीता है।सो ' होशियार 'की आवाज सुनते ही फटाफट अग्निकुंड में लेट गये।एक झौंका आया हजारों मन बालू हमारा अभिशेक करती हुई झर से निकल गई। फिर बिन गरजे-तड़पे मेघ पटापट बरसने लगे।बूंदें  गोली की तरह शरीर पर लग रही थी।पर जलते बदन को राहत पहुंचाती थी।पर पांच मिनट में सब रफा-दफा।सूर्य रेत के साथ रतिक्रीड़ा करने लगा। ऐसे अवसरों पर छड़ीदार छड़ी फैंककर साष्टांग लेट जाता था।छड़ी का देवत्व तब हवा उड़ा ले जाती। छड़ीदार को अब स्मरण आया। और छड़ी को कंधियाकर वह बोल उठा-'हिंगलाज माता की जय!'सहीसलामत मोत के मुंह से निकलने से गदगद गिरा से हम लोगों ने डबल जय ध्वनि की। अंधेरा होने से पहले हम एक जलकूप के निकट पहुंच कर जयध्वनि से धरती-आसमान को गुंजायमान कर दिया।वहीं डेरा डाल दिया गया। बहुत खोजने पर भी चाय बनाने के लिए लकड़ी नहीं मिली।जिसके पास जो था वही ऊंट वालों को दिया।
‌       शेर मोहम्मद ऊंट चराने चला गया।
‌रेतबालू से नहाये सब लोग चारों खाने चित हो गये।मगर मैं कसमसाता रहा। आखिर न रहा गया तो कासिम मियां के पास गया। उसने ऊंट को पानी पिलाने वाला डोल और रस्सी लेकर,कुएं के पास जाकर पानी भर-भरकर मुझे नहलाया। बड़ा सुख मिला।रात को घोड़े बेचकर सो रहा।
‌सूर्योदय से पूर्व छड़ीदार ने छड़ी धोक लगाई।ऊंटों पर सामान लदने लगा।नित्यक्रिया से निवृत्त होकर जीवराज भाई चाय बनाने के लिए लकड़ी ढूंढते -ढूंढते एक बालूका गुफा के पास पहुंचे और चीखकर गिर पड़े।सब लोग उधर ही दौड़े।देखा तो वहां एक मानव-लाश पड़ी थी।ऊंट वालों ने फातिहा पढ़ा और
‌बताया कि यह तो कुएं का पहरेदार है।वह कंकाल सा था।उसका पेट पीठ से सट गया था।अल्लाह-अल्लाह करते हुए कासिम आंखों में आंसू भरकर बोला,भूख से सूखकर मर गया बेचारा!खुदा उसे जन्नत दे। पहरेदार हमारे पहुंचने से कुछ ही घंटे पहले भरा होगा;क्योंकि शव सूखा न था-जो शुष्कता थी वह लंबे अरसे तक खाना न मिलने के कारण थी।
     जीवराज भाई को पानी के छींटे देकर होश में लाया गया।उन्हें जब पता चला कि पेट की ज्वाला ने पहरेदार को जला डाला,तो वह रोने लगे और जयाबेन से बोले-एक रोटी का आटा ले आओ।जब वह आटा ले आती तो जीवराज भाई ने मृतक की भूखी आत्मा की शांति के लिए आटा शव के सिरहाने रख दिया।उनकी देखा-देखी सभी लोग कुछ न कुछ रखने लगे। मैंने कुछ नहीं रखा तो लोगों ने मुझे नास्तिक अहिंदू समझकर हिकारत की निगाह से देखा।कुओं के पहरेदारों का पेट काटने में न हिचकिचाने वाले धर्मात्माओं ने मृत पहरेदार के शव को भोजन देकर सातवें आसमान का सुख प्राप्त किया।वे लोग बूढ़े माता-पिता की उपेक्षा करने और उनके तर्पण,श्राद्ध, पिंडदान करके यशोभागी,पुण्यभागी बनने के अभ्यस्त जो थे।मेरा मन वितृष्णा से भर गया।
जब सब चलने लगे, तो मैंने कहा-'इस मुर्दे को भोजन तो दिया,अब इसे ठीकाने भी लगा दो।' यह सुनते ही सब बिदक गये। मुसलमान का शव छूकर  कौन अपवित्र हो। माता हिंगलाज इस पाप को निश्चय ही क्षमा नहीं करेंगी।सब लोग एक-एक करके ऊंटों के पास पहुंच गए।यह गये हम तीन दो ऊंटवाले और मैं। हमने बालू हटाकर गड्ढा बनाया, पहरेदार का शव उसमें लिटाया। आटा-दाल भी उसमें रख दिया।ऊपर से  बालू का ढेर चिन दिया।बन गयी कब्र।शेर मोहम्मद से डोल-डोरी लेकर सचैल स्नान किया।उस अज्ञात नाम,कुल,गोत्र मुसलमान पहरेदार के नाम तर्पण किया।प्रभु से प्रार्थना की कि उसे अगले जन्म में कुएं का पहरेदार ने बनाना।
         दो घड़ी दिन चढ़ आया तब छड़ीदार ने छड़ी उखाड़ी और 'हिंगलाज माता की जय!'बोल कर कूच कर दिया।सब मौनी बाबा बनकर उसके पीछे चल पड़े।बीस -पच्चीस मन का बोझ पीठ पर लादे ऊंट चल रहे थे। उन्हें  रात में चारा भी नहीं मिला था।लंबी जीभ निकालकर वे बलबला रहे थे।मध्याह्न का पूर्ण युवा सूर्य की तीखी किरणों ने एक ऊंट के पेट में आग भड़का दी।बलबलाता हुआ वह एकदम बेकाबू हो गया।सब लोग जान बचाकर भाग उठे। छड़ीदार की छड़ी भू लुंठित  हो गयी। जीवराज भाई पलायन कर गए।जयाबेन भागते हुए मुंह के बल गिरी, तो गिरी ही रही।बच गया शेर मोहम्मद उसकी पगड़ी ही ऊंट के मुंह लगी।भूखा ऊंट उसी को चबाता हुआ ऊंची गर्दन करके बलबलाता रहा।